पिता की देह में छाती पर चंदन लगाते बेटे का दर्द: कितना दूर जाना होता है पिता से, पिता जैसा होने के लिए

छोटे शहर के मध्यमवर्गीय संयुक्त परिवार में पिता अपने बेटे को गले लगाना तो दूर कभी नाम लेकर भी नहीं बुलाता। बेटा पहली बार उस छाती को हाथ तब लगाता है जब देह आंगन में होती और वह उस ठंडी छाती पर चंदन का लेपन करता है। शब्दों में अभिव्यक्त न हो पाने वाले पिता-पुत्र के प्रेम और आपसी समझ को इंगित करती है नवल व्यास की यह आपबीती। लाखों बेटों की भावना इन शब्दों में नजर आई। इसलिए स्वीकृति के बाद फादर्स-डे पर सबके लिए साझा कर रहे हैं उनकी व्यक्तिगत अनुभूति.. अज्ञेय के शब्दों में कहें तो-कितना दूर जाना होता है पिता से, पिता जैसा होने के लिएः-


पापा की मेहरबानी उन दिनों लोकसभा टीवी और दूरदर्शन पर कुछ ज्यादा थी। कारण ये कि उनके बेटे का एक मिनट का छोटा सा विज्ञापन उन दिनों इन दोनों टीवी चैनलों पर आ रहा था, तो उनके लिए टीवी का मतलब केवल ये दो चैनल ही हो गए थे। लोग विज्ञापन आने पर चैनल चेंज करते थे, पापा कार्यक्रम आने पर। बिना अतिरिक्त उत्साह दिखाए, ताकि सबको नॉर्मल लगे। दूर बैठे जब पहली बार ये बात फोन पर पता चली तो जहां था, वहीं सकपका कर बैठ गया। बोलते ही नहीं बना। मेरी उम्र के छोटे शहरों के लड़कों को उनके पिताजी लोगों का प्यार ऐसे ही मिला है। सामने सामने कुछ नहीं। पीठ पीछे सारी चिंताए। सामने सामने नालायक। पीठ पीछे ये कहना कि अपनी धुन का है। कुछ न कुछ तो कर ही लेगा।
हमारे पिताजी लोग अपने जमाने के संयुक्त परिवार के संस्कारों के बीच आये होते हैं। संयुक्त परिवार में अपने पिताजी, ताऊजी और बड़े भाइयों के सामने अपने ही बेटे को बहुत बार अजनबी जैसा ही ट्रीट किया जाता रहा है तो ये सब कुछ उनकी आदत में शुमार हो गया है। अब खुद के अलग घर में रहते हुए भी उन्हें ऐसा ही लगता है कि पीछे उनके बाउजी, बड़े भाईसाब खड़े हैं जो अभी फटाक से टोक देंगे-देखो तो, शर्म ही नहीं है। बेटे को हमारे सामने प्यार कर रहा है। बेटे को नाम से बुलाने तक की मनाही थी। आंगन और बरामदे में हमारे बचपन के नाम ‘ऐ‘ और ‘सुन‘ ही होता था। संयुक्त परिवार के तमाम सुखों के बावजूद इस एक बात की हमेशा शिकायत रही। अब पिताजी लोग हम लोगों की ‘ढीठता‘ और ‘बेशर्मी‘ में ढल गए हैं। हम तो अपने रोते बच्चे को सुलाने के लिए लोरियां भी उनके सामने गा देते हैं। बड़े कमजोर निकले हमारे पापा लोग। पहले अपनी पीढ़ी और उनके संस्कारो का लिहाज किया और अब हमारा कर रहे हैं। सोचो, माँ-बाप के रूप में कितनी खास पीढ़ी देख ली हमने। इससे पहले वाली खेप ने एकधार नियम माने और अब वाली पीढ़ी एकधार नियम तोड़ रही। मां-बाप की इस पीढ़ी ने बड़ों के आगे झुकना भी सीखा तो छोटों को अपने मन का करने भी दिया। ऐसे इमोशन और धैर्य कहां हमारे में आएंगे। हम जल्दबाज हैं। इमोशन लिखते हैं, इमोशन झाड़ते हैं, पर व्यवहार में बहुत बार प्यार और संवेदना से परे हो जाते है।

पापा स्मार्टफोन लेकर जब ताजा ताजा स्मार्ट हुए, तब फेसबुक-व्हाट्सएप्प सभी पर डेब्यू कर चुके थे। व्हाट्सएप्प पर कभी न मैं उन्हें मेसेज करता था न उनका आता, पर जब भी कभी कोई स्टोरी-स्टेटस शेयर करता तो स्टेटस सीन में सबसे पहला नाम उनका ही होता था। ऐसे तो कभी फ्रेंड बने नहीं, पर फेसबुक पर उनकी फ्रेंड रिक्वेस्ट एक महीने से आ रखी थी पर उसे एक्सेप्ट नहीं किया। मुझे अपना लिखा-पढ़ा उनको दिखाने का संकोच था।

पापा चले गये। अचानक ही। अपने जाने का कोई पूर्व संकेत दिए बिना। अब पापा नहीं है। उनकी इस फेसबुक फ्रेंड रिक्वेस्ट को एक्सेप्ट कर चुका हूं। याद आती है या बात का मन होता है तो उनके मैसेंजर पर मैसेज कर देता हूँ, फिर डिलीट भी मार देता हूँ। वो कुछ मेरा लिखा पढ़ न लें, वो डर और संकोच तब भी था अब भी है, उम्र भर रहेगा।

उनके जाने के बाद बैंक, कागज-पत्तर, पेंशन, एफडी, आधार, बिजली, पानी, राशन जाने। जाना कि हम ‘मस्त‘ थे क्योंकि पीछे कोई बहुत ‘व्यस्त‘ था। उनके जाने के बाद अब डरपोक हो गया हूँ। भविष्य को लेके, परिवार को लेके। पहले न सोचता था। अब बहुत ज्यादा सोचता हूँ। हमसे केवल मतलब जितनी ही बात करने वाले, कमजोर से लगने वाले पापा से कितनी ताकत थी, बाद में जाना। ये आदमी अब आगा-पीछा, नुकसान-फायदा सोचकर निर्णय लेने लगा है। परिस्थितियों के सामने दांत भींचने की बजाय विनम्र होकर हाथ जोड़ने की जुगत में रहता है। घने बरगद की छांव हटने के बाद धूप बहुत तेज सिर को लगने लगती है।

संकोची परिवार में पापा ने न तो कभी मुझे गले लगाया ना ही मेरे सिर पर कोई प्यार से हाथ रखा। उनका कभी खुद का माथा भी दुखा तो बाम हमेशा मम्मी से ही लगवाया। मुझे ये सुख कभी न मिला। सारा प्यार, सारी चिन्ता, सारी बातें अंदर-अंदर थी, अंदर-अंदर लेके चले गए। मेरे अंदर छोड़ गए, ढेर सारा अफसोस।

अपनी अंतिम यात्रा पर जाने से पहले जब आंगन में लेटे थे, जब उस ठंडी छाती को चंदन लगाते हुए पहली बार छुआ था। उस भीषण दुःख के आवेग में मिला वो स्पर्श जो हमेशा चाहता था। बाप की छाती पर सिर रखने का जो सुख मैं कभी नहीं ले पाया, उसे अपने बेटे गून्नु से लेता हूँ। कुछ कमियां, कुछ इच्छाएं, कुछ अफसोस ऐसे ही पूरे होते है।

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