रह न जाए तेरी-मेरी बात आधी : भरत व्यास के गीतों के बिना अब भी “सूना पड़ा संगीत”

धीरेंद्र आचार्य। 

वो पढ़ने की नहीं, सुनने की चीज है। उसके बारे में लिखना यानी दुस्साहस करना है। वह खुद तो लिखकर अमर हो गया लेकिन दुखी इस बात पर था कि उस जमाने के कथित बड़े साहित्यकारों, गीतकारों ने उसे लेखक ही नहीं माना। कविता की कुछ किताबें छपाई, दीमक खा गई। कुछ कवि सम्मेलनों में बुलाया। गीत-कविताएं सुनी। दाद मिली। मेहनताना लेने गए तब तक आयोजक हॉल से नदारद हो गए। तब की बंबई और आज की मुंबई में दसियों किलोमीटर पैदल चले। चलते-चलते जेहन में कुछ शब्द उतर गए। कम भाड़े वाली ‘खोली‘ तक पहुंचते वे गीत की शक्ल ले चुके थे। ऐसे गीत जो उन्होंने खुद को नसीहत देने के लिए लिखा था। तय किया, अब गीत-कविता जो भी लिखूंगा वह गोष्ठियों, किताबों के लिए नहीं वरन परिवार का पालन करने के लिए ही रचूंगा। वे पंक्तियां कुछ इस तरह थी…
कवि राजा कविता के मत अब कान मरोड़ो
धंधे की कुछ बात करो, कुछ पैसे जोड़ो
शेर शायरी कवि राजा ना काम आएगी
कविता की पोथी को दीमक खा जाएगी
जी हां, अब समझ ही गए होंगे कि हम बात कर रहे हैं हिन्दी फिल्मों के प्रख्यात गीतकार पंडित भरत व्यास की। हालांकि ऊपर लिखी गीत की ये पंक्यिां भी बाद में नवरंग फिल्म के गीतों में शामिल कर ली गई लेकिन खुद पंडित व्यास ने कहा, ये कविता ‘मैंने खुद को नसीहत देने के लिए लिखी थी।’

मुफलिसी का किस्सा:
पंडित व्यास ने खुद अपनी जुबानी एक घटना का जिक्र किया। कहा, एक फिल्म निर्माण का काम शुरू किया, इस दौरान देश विभाजन हो गया। फिल्मकार पाकिस्तान चले गए। फिल्म अटक गई। जमा-पूंजी खत्म हो गई। मुंबई में किराये की छोटी-सी खेली में गुजारा हो रहा था। काम नहीं मिल रहा था। हाथ तंग था। इसी दौरान एक कवि सम्मेलन का बुलावा आया। लेने को बड़ी गाड़ी आई। मान-सम्मान हुआ। कवि-सम्मेलन खत्म हुआ तब न आयोजक मिले, न छोड़ने के लिए गाड़ी। ‘पंडित व्यास के कथन की पुष्टि इसी गीत के आगे की पंक्तियां करती हैं। मसलन:-
छोड़ो कलम, चलाओ मत कविता की चाकी
घर की रोकड़ देखो कितने पैसे बाकी
कितना घर में घी है, कितना गर्म मसाला
कितने पापड़, बड़ी, मंगोड़ी, मिर्च-मसाला….

निर्माता-निर्देशक व्ही शांताराम के साथ गीतकार भरत व्यास गायक मुकेश को गीत के बारे में बताते हुए

धुन का धनी लेखक बन गया सबसे लोकप्रिय गीतकार:

ऊपर का पूरा गीत आप यू ट्यूब पर देख-सुन सकते हैं। अभी बात उन गीतों की जिन्होंने इस लेखक को देश का सबसे लोकप्रिय हिन्दी फिल्म गीतकार बना दिया। मसलन:
‘सारंगा तेरी याद में, नैन हुए बेचैन…‘ गीत बजते ही आंखें बंद हो जाती है। मुकेश की मीठी आवाज सपनों की दुनिया में ले जाती है ‘वो अंबुआ का झूलना, वो पीपल की छांव, घूंघट में जब जांच था, मेहंदी लगी थी पांव..‘ तक आते-आते भाव के सामूहिक सफर में आवाज थोड़ी पीछे रह जाती है। सरदार मलिक के संगीत से सजी धुन पर सवार होकर शब्द कानों के रास्ते सीधे दिल में गहरे उतरे जाते हैं। अंतरा खत्म होते-होते ‘आज उजड़कर रह गया वह ‘सपनों का गांव‘ तक पहुंचते एक आह निकलती है और कमी खलती है पंडित भरत व्यास की। अहसास होता है ‘आज उजड़कर रह गया वो गीतों का गांव‘।

लौट के आ…अपने दर्द को दिए शब्द, दुनिया की आवाज बने:
पहले ही लिख चुका हूं कि जिस शख्सियत की बात कर रहे हैं उसके बारे में लिखना दुस्साहस है। वह सुनने की ही चीज है। इसके बावजूद दुस्साहस यह सोच कर किया कि इन शब्दो के बीच गीत की जो पंक्तियां समाई है वह पढ़ते हुए भी आंखें मूंद कर सुनी ही जाएगी। मसलन, ‘लौट के आ…‘ तीन शब्द लिखते ही आगे का पूरा गीत खुद ही जेहन में फिल्म की तरह चलने लगता है। इस गीत के पीछे की कहानी कमोबेश सभी जानते हैं। फिर भी कुछ शब्दों में बयां कर दू। मसला यह था कि पंडित व्यास के बेटे श्यामसुंदर नाराज होकर घर से चले गए। व्यासजी भावुक आदमी, गमगीन हो गए। दिन-रात बेटे की याद में खोये शब्दों के इस पुजारी की कलम बोल पड़ी:-
‘मेरा सूना पड़ा रे संगीत, तुझे मेरे गीत बुलाते हैं,
आ लौट के आजा मेरे मीत, तुझे मेरे गीत बुलाते हैं…
पत्नी सहित पूरा परिवार दोहरा दर्द झेल रहा था। बेटा छोड़ गया और पंडितजी दुखी होकर घर में बैठ गए। छोटे भाई, अभिनेता बी.एम. व्यास ने इस परिस्थति में धैर्य से काम लिया। बड़े भाई को संभाला और व्यक्तिगत दुख में लिखे गए इस गाने के साथ ही फिर से काम करने के लिए भाई को तैयार किया। गीत 1959 में ‘रानी रूपमती‘ फिल्म में आ गया। इसे मेल-फिमेल दोनो वर्जन में लिया गया। फिमेल में लता मंगेशकर और मेल वॉइस में मुकेश की आवाज में गूंजा यह गीत ऑल टाइम हिट हो गया। एस.एन.त्रिपाठी के संगीत से सजे इस गीत में छिपा पिता का दर्द बेटे ने शायद सुन लिया लेकिन अब भी सामने आने में संकोच कर रहा था। ऐसे में बाप का दुख फिर ‘जनम-जनम के फेरे‘ फिल्म में छलका:
‘जरा सामने तो आओ छलिये, छुप-छुप छलने में क्या राज है…।‘
लता मंगेशकर-मोहम्मद रफी की आवाज में गाए इस गीत में पिता ने खुलकर पुकार लिया:
‘हम तुम्हें चाहे, तुम नहीं चाहो ऐसा कभी ना हो सकता,
पिता अपने बालक से बिछड़कर सुख से कभी ना सो सकता..‘
अब पुकार ने बेटे की दिल में खड़ी झिझक की सभी दीवारें तोड़ दी। बेटा घर आया और पंडितजी की गीत यात्रा कष्ट के उबड़-खाबड़ रास्तों से निकल सदाबहार नग्मों की सुरीली वादियों में जा पहुंची।
ये कौन चित्रकार है..
पंडित व्यास के गीतों की वादियों में फूलों की तरह खिले नग्मों की सूची इतनी लंबी है कि उनकी एक-एक पंक्ति लिखने में ही पूरी किताब बन जाए। सारंगा, संत ज्ञानेश्वर, तूफ़ान और दिया, रानी रूपमती, गूंज उठी शहनाई, दो आँखे बारह हाथ, नवरंग, बूँद जो बन गई मोती, पूर्णिमा जैसी फिल्में हर दौर में यादगार होने के पीछे एक बड़ा कारण है इनका गीत-संगीत। इसमें भी खास बात यह है कि संगीतकार भले ही अलग-अलग हो गए, गायक बदल गए लेकिन इन फिल्मों के जिन गीतों को अमर कहा जाता है उसके लेखक पंडित भरत व्यास थे।
‘ऐ मलिक तेरे बंदे हम’, ‘तेरे सुर और मेरे गीत’, ‘दिल का खिलौना हाय टूट गया’, ‘हाँ दीवाना हूं मैं’, ‘आधा है चन्द्रमा, रात आधी’, ‘ज्योत से ज्योत जगाते चलो’, ‘तुम गगन के चन्द्रमा’ हो आदि-आदि। गीतों की वादियों में उकेर दिए गए इन शब्दचित्रों की छटा देख कहना पड़ता है, ..ये किस कवि की कल्पना का चमत्कार है, ये कौन चित्रकार है…।


बीकानेर-चूरू से कोलकाता होते हुए मुंबई का सफर:
राजस्थान के बीकानेर में 6 जनवरी 1918 को जन्मे भरत व्यास तब की बीकानेर रियासत के ही एक हिस्से रहे आज के चूरू जिले के थे। मैट्रिक पास कर कलकत्ता चले गए और वहां पढ़ाई के साथ नाटकों में काम शुरू किया। खुद का नाटक लिखा-‘रामू चन्ना‘। राजस्थानी प्रेम कहानी पर आधारित यह नाटक खूब फेमस हुआ। इस कहानी पर आधारित सुपर हिट राजस्थानी फिल्म ‘म्हारी प्यारी चनणा‘ भी बनी। फिल्मों में काम करने का शौक था। निर्देशक बनना चाहते थे। मुंबई पहुंच गए। एक-दो फिल्मों में काम भी किया। फिल्म निर्माण के क्षेत्र में भी गए लेकिन विभाजन के कारण वह बीच में रूक गया। माली हालत खराब हो गई। आखिर गीतों की नैया चल पड़ी और प्रसिद्धि के तटों पर पड़ाव डालती आगे बढ़ती गई। जब 4 जुलाई 1982 यानी आज ही के दिन दुनिया छोड़ गए तो पूरा हिन्दुस्तान मानों रो-रोकर पुकार रहा था ‘लौट के आ…‘
बात फिर वहीं से..
बात समाप्त करने से पहले एक बार फिर वहीं ले जाता हूं जहां से शुरू हुई। मतलब यह की गीतकार भरत व्यास ने जिस साहित्य समाज की उपेक्षा से दुखी होकर ‘कवि राजा कविता के मत अब कान मरोड़ो..‘ लिखा उस समाज ने मौत के बाद भी इस कवि को वो जगह नहीं थी। अपने ही प्रदेश, राजस्थान में साहित्य अकादमी ने इसे कभी गीतकार, कवि, लेखक के तौर पर नहीं माना। आखिरकार देहावसन के 40 साल बाद राजस्थान की साहित्य अकादमी में बृजरतन जोशी के संपादक में निकली पत्रिका ‘मधुमती‘ का विशेषांक इस कवि को समर्पित किया। इसमें देश-प्रदेश के लेखकों ने उनके गीतों पर टिप्पणियां की। तब दुखी पंडितजी को वी.शांताराम की ओर से कहे गए शब्द साकार हो गए। शांताराम ने कहा था, ‘कोई माने न मानें, मैं कहता हूं तुम्हारी रचनाएं बड़ा साहित्यिक दर्जा रखती है। एक दिन दुनिया यह बात कहेगी।’

अपनों ने भी नहीं अपनाया:
उपेक्षा वह शहर यानी बीकानेर भी कम नहीं कर रहा जिसने इस अमर गीतकार के नाम से एक रास्ते का नाम तो तय किया लेकिन बनाया अब तक नहीं। कोई स्मारक इस शहर में उस शख्सियत के नाम से नहीं है। यह बनने से उस महान गीतकार की शान में चार चांद नहीं लगने वाले। बस, हमारी पीढ़ी यह जान पाएंगी कि ये-कौन गीतकार था। आज के फिल्मी गीतों की हालत देख उस गीतकार की याद आना लाजिमी है। जब याद आती है तो ‘सारंगा‘ की तर्ज पर यही कहा जा सकता है-‘आज उजड़कर रह गया, वो गीतों का गांव।‘


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