एमेच्योर थियेटर मगर एप्रोच बदल गई, कुछ रंगकर्मी हो गये नाटक के पर्याय

अभिषेक आचार्य

आरएनई, बीकानेर। 

अब रंगकर्मियों ने अपने आप को सांस्कृतिक कार्यक्रमों से पूरी तरह दूर करना आरम्भ कर दिया था। एस वासुदेव सिंह के शिविर का ही ये प्रतिफल था कि अब नाटक को एक स्वतंत्र कला रूप में रंगकर्मी स्वीकारने लगे थे। अब केवल इंडिया रेस्टोरेंट या चुनीलाल जी की दुकान पर रंगकर्मी केवल चाय पीने और गप्पे मारने के ध्येय से इकठ्ठा नहीं होते थे। वहां बैठकर नाटक पर भी बात करने लगे थे। नये छपे नाटकों की जानकारी विष्णुकांत जी, प्रदीप भटनागर जी देते। एस डी चौहान, हनुमान पारीक आदि फिर इनसे लेकर नाटक पढ़ने की कोशिश करते ताकि रात की बैठक में उस पर बात की जा सके।

अब नाटक भले ही दर्शकों के मध्य पैठ नहीं बना पाया हो मगर रंगकर्मियों को जरूर ये अहसास करा रहा था कि ये जिम्मेवारी का काम है। ये वो दौर था जब रंगकर्मी ने भी संस्थागत स्वरूप लेने पर विचार करना आरम्भ कर दिया था। डॉ राजानन्द भटनागर, एस एस पंवार, रंजन गौतम, निर्मोही व्यास आदि ने संस्थाओं की तरफ कदम बढ़ा दिए थे, ये गम्भीर रंगकर्म के लिए एक मजबूत कदम था। हालांकि कलाकार हर किसी संस्था के बुलावे पर नाटक में अभिनय करने चले जाते थे, क्यूंकि संस्थाओं को लेकर तलवारें नहीं खींची हुई थी। हां, इतनी नैतिकता जरूर थी कि वे अभिनय करते मगर उस संस्था के भीतरी कामों, हिसाब किताब, व्यवस्था आदि में कोई दखल नहीं करते थे।

कुछ मौसमी संस्थाएं भी उस समय बनी और एक दो नाटक करने के बाद बंद हो गई। जिनके पास एक विजन था वे ही संस्थाएं खड़ी रही। कलाकार को जहां पहले सामान्य व्यवहार से ही धिका लिया जाता था अब संस्थाओं का उनके प्रति सम्मान का नजरिया बन गया। पूरा आदर अब कलाकार का होने लगा था। ये शुभ संकेत था। इसकी भी खास वजह थी। कुछ कलाकार बीकानेर रंगमंच का प्रयाय बन गए थे। उनको देखते लोगों को नाटक का अहसास होता था। इसे भी एक उपलब्धि कहें तो गलत नहीं होगा।

अब समाचार पत्रों ने भी नाटक को स्थान देना शुरू कर दिया था, भले ही छोटा सा ही सही। इससे नाटक व कलाकारों के प्रति लोगों के नजरिये में बड़ा बदलाव हुआ। आज का रंगकर्मी इस बड़े तथ्य से अपरिचित ही है कि उस समय कलाकार को सम्मान दिलाने के लिए रंगकर्मियों ने कितने पापड़ बेले थे। कितनी कड़ी मेहनत की थी। यदि उसी मेहनत को आज तक कायम रखा जाता तो शायद बीकानेर देश का सबसे चर्चित नाट्य केंद्र होता। मगर उसके लिए रंगमंच के प्रति समर्पण व प्रतिबद्धता पहली जरूरत है, जिसका इस दौर में थोड़ा अभाव दिखता है। इस पर अभी के रंगकर्मियों को विचार करना चाहिए, उनके पास तो उस समय के रंगकर्मी भी मौजूद है। उनके अनुभव का लाभ लेकर गतिशील हो तो शायद बीकानेर फिर से सिरमौर बन सकता है।

वर्जन

वरिष्ठ रंगकर्मी प्रदीप भटनागर

एक रंगकर्मी होने की पहली शर्त ये है कि वो रंगमंच के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध हो। इस माध्यम को वो केवल ग्लैमर या वाह वाही के लिए न अपनाये। रंगकर्म हमें न केवल बेहतर इंसान बनाता है अपितु समाज का हम पर जो कर्ज है उसे भी उतारने में सहायक बनता है। आज के रंगकर्मियों को अपना इतिहास जानकर आगे की तरफ गम्भीरता से कदम बढ़ाना चाहिए।

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