आठ की उम्र में ब्याह, 10वीं में गौना, जिद्द-मैं पढूंगी, और बालिका वधू बन गई डॉक्टर

पढ़ाई के दौरान ही प्यारी-सी बेटी हुई रूविका, वह ढाई साल की हो गई, गांव की आंगनबाड़ी में जा रही
कहानी वहां से, जहां से मैं साक्षी बना:
रूपा यादव ने नीट की परीक्षा अच्छे नंबरों से पास कर ली। नीट-2017 के रिजल्ट से जुड़ी यह सबसे बड़ी सूचना थी। मेरे लिए इससे बड़ी सूचना यह थी कि उसका एडमिशन बीकानेर के एसपी मेडिकल कॉलेज में हो रहा है। डा.आर.पी.अग्रवाल प्रिंसिपल थे। फोन पर बात की तो बताया कि अगले दिन एडमिशन हो रहे हैं। रूपा और उससे जुड़े पहलुओं की चर्चा की तो वे हैरान रह गए। बोले-इसके बारे में थोड़ी सूचना जरूर मिली थी लेकिन इतना पता नहीं था। उसका स्वागत करेंगे। पूरा ख्याल रखेंगे। हुआ भी यही, अगले दिन वह डा.अग्रवाल के चैंबर में थी। मैं यह सोचकर पहुंचा था कि उससे इंटरव्यू के अंदाज में कुछ बातें करूंगा लेकिन जब पहली बार देखा तो कुछ कहने का मन नहीं हुआ बस महसूस कर लौट आया। एक दुबली, सांवली-सी लड़की जिसे देखकर साफ लगता था कि कहीं दूर गांव से आई है। बड़े डॉक्टर्स के साथ ही सम्मान करने आई कुछ महिला नेत्रियों के बीच हो रही घबराहट उसके चेहरे पर साफ दिख रही थी। मैंने बातचीत का लोभ त्याग दिया।
बधाई हो, रूपा डॉक्टर बन गई:

पांच साल बीत गए। इस दौरान बमुश्किल दो बार उससे फोन पर बात हुई। इतनी ही बार वाट्सएप पर बधाई या कोई और मैसेज। बधाई, दो बातों पर। पहली-जब उसने प्यारी-सी बेटी रूविका को जन्म दिया। तब शायद वह एमबीबीएस के तीसरे साल में थी। मतलब यह कि बेटी जब पेट में आई तो वह दूसरे साल की पढ़ाई कर रही थी। अब बेटी ढाई साल की हो गई है। गांव में हैं। और इन्हीं दिनों गांव की आंगनबाड़ी में जाना शुरू किया है। दूसरी बधाई हाल ही, क्योंकि इंटर्न का रिजल्ट आ गया। उसने बहुत अच्छे नंबर हासिल किए हैं। दुर्गम सफर का एक बड़ा हिस्सा तय हो गया है। बधाई हो रूपा यादव डॉक्टर बन गई है। हां, एक खास बात। इन पांच सालों के बीच एक बार जब फोन किया तो नो रिप्लाई हुआ। बाद में बात होने पर बोली-गांव आई हुई है। फसल कटाई का समय है। उसी में लगी थी। भैंसों को भी चारा देना था। फोन अब ही देखा है।
फ्लैश बैक: जानिये क्यों इतनी खास है रूपा की कहानी:


राजस्थान में जयपुर जिले के शाहपुरा का करीरी गांव। लगभग आठ साल की ‘छोरी‘ को बताया गया, तेरा ब्याह है। बच्ची ही थी। ब्याह का मतलब नए कपड़े। मिठाई। फेरे। राजी हुई। भायलियों (सहेलियों) ने बताया, बाकी सब तो ठीक है लेकिन तूं अब गांव में नहीं रहेगी। सासरे (ससुराल) चली जाएगी। हमारे साथ स्कूल नहीं जा सकेगी। बस, पिता के सामने शुरू हो गया बाल-हठ। मां के सामने रोना-मैं स्कूल नहीं छोड़ूंगी। मैं पढ़ूंगी।
अपनी ही बड़ी बहिन के देवर शंकरलाल के साथ ही शादी होनी थी। पिता इसलिए ज्यादा बोल नहीं सकते क्योंकि घर में बड़े ताऊजी थे और उन्होंने दोनों बेटियों की शादी एक ही घर में तय कर दी थी। इसके बावजूद तय हो गया कि गौना तो बाद में ही होना है। जब तक पीहर के गांव में है, भायलियों के साथ स्कूल जाती रहेगी। बस, वह पढ़ती रही। आठवीं के बाद गांव मे स्कूल नहीं थी। तब भी उसकी जिद्द चली और वह दूसरे गांव की स्कूल तक रोज जाती।
10वीं का इम्तिहान, गौना और चौंकाने वाला रिजल्ट:
10वीं बोर्ड की पढ़ाई। गौना यानी ससुराल जाने का बुलावा। इम्तिहान अभी बाकी। अब पढ़ाई का क्या होगा? फिर बोली-मैं पढ़ूूंगी। सबने मिलकर बात मान ली, ठीक है। इम्तिहान दे लेगी। ससुराल चली गई। वहां पति शंकरलाल के साथ जेठानी बनी बहिन और जेठ-जीजा ने भी साथ दिया। दे दी परीक्षा। रिजल्ट आया तो चौंकाने वाला था। लगभग 86 प्रतिशत नंबर आए थे। सब खुश। गांव की पहली बेटी ने इतने नंबर हासिल किए। मां को गांव की ही कुछ औरतों ने कहा, बेटी आगे भी पढ़ना चाहे तो तूं मना मत करना। उधर ससुराल वालों ने भी मान लिया, बीनणी में पढ़ने की लगन है। अपने गांव की बेटियों के साथ पढ़ने दो। बालिका वधू बनी रूपा गांव से बाहर सीनियर सैकंडरी की पढ़ाई के लिए चल पड़ी। बोर्ड में इतने नंबर लाकर दिखा दिए कि नीट का एग्जाम दे सके। अब बेटी रूपा ने अपनी आंख में दबाए सपनों को पलकें खोलकर पहली बार सबको दिखाया और पूरी दृढ़ता से बोली-मैं आगे पढ़ूंगी। साइंस में पढ़ूूंगी। डॉक्टर बनूंगी। कुछ हंसे। कुछ ने कहा, नंबर ठीक आ गए तो सिर पर चढ़ रही है। वह डिगी नहीं। नीट की तैयारी भ्की। परीक्षा दी। एलिजिबलिटी हासिल कर ली लेकिन पहले चांस में सरकारी कॉलेज मिलने जितने नंबर नहीं आए। एक बार फिर परीक्षा देने का निर्णय किया। इस बार परिवार के साथ ही कोटा के कोचिंग संस्थान एलन ने भी अपनी ओर से छूट व प्रोत्साहन दिया और नीट-2017 में सलेक्शन की बड़ी सूचना आई।
पग-पग पर परिवार साथ:


खर्च बढ़ गए। खेती-पशुपालन से पढ़ाई के खर्च उठाना संभवन नहीं था। पति शंकरलाल ने पत्नी को पढ़ाने के लिए एक टैक्सी कार ली। खूब मेहनत की और किताबों से लेकर हॉस्टल में रहने, खाने तक के इंतजाम में सहयोग किया। जेठ ने भैंसों की संख्या बढ़ा दी ताकि ज्यादा दूध मिले और ज्यादा आय हो। अब दूसरी संस्थाएं और लोग भी जुटने लगे। यहां तक कि जब बीकानेर के एसपी मेडिकल कॉलेज पहुंची तो डॉ.अग्रवाल सहित स्वयंसेवी संगठनों ने भी पुस्तकों सहित हर जरूरतों का पूरा करने का वादा किया। किसने, कितना किया यह दीगर बात है लेकिन रूपा ने पढ़ाई में जी-जान लगा दी। बीच में ही कोविड का दौर आया। पढ़ाई के दौरान ही बेटी को जन्म दिया। इन सबके बावजूद रास्ते से नहीं डिगी।
पिक्चर अभी बाकी है:
इंटर्न करने के बाद वह डॉक्टर के रूप में किसी सरकारी या प्राइवेट हॉस्पिटल को ज्वाइन कर सकती है लेकिन ऐसा नहंी कर रही। वह पीजी की तैयारी कर रही है। कहती है, मुझे ऑब्सटेट्रिक्स एंड गायनी की स्पेशलिस्ट बनना है। डा.स्वाति फलोदिया सहित की यूनिट में बतौर इंटर्न काम करते हुए इसका अनुभव भी खूब लिया। अब तैयारी कर रही है। बेटी रूविका को संभाल रही है।


हालात पर रोने वालों के सौ सवाल?
आज जब रूपा से पूछा, इतना सफर तय किया। क्या कभी इस बात पर अफसोस नहीं हुआ कि किन हालत में रह गई? छोटी उम्र में शादी क्यों हो गई? कभी-कभार परिवार या आस-पास से तंज भी मिले होंगे? कभी रोना आया होगा? पति इतना पढ़ा-लिखा नहीं है? आदि-आदि सौ सवाल होते हैं। क्या है जवाब?


कर दिखाने वालों का एक जवाब:

सच कहूं तो हालात और बाकी बातों के बारे में कभी सोचा ही नहीं। सोच में बस एक ही बात थी वो अपना लक्ष्य। यानी डॉक्टर बनना। परिवार ने बहुत साथ दिया। ऐसा नहीं है कि मैं सबकुछ छोड़कर एक काम में जुट गई। प्राथमिक यही रहा। जब भी वक्त मिला, खेती से लेकर पशु पालन तक में हाथ बंटाया। वह मेरा अपना यानी घर का काम है। अब बेटी रूविका गांव की ही आंगनबाड़ी में जा रही है।


इसलिए यह तूफान में भी जलते दीये की कहानी है…
जाहिर है, यह कहानी है ऐसी बालिका वधू की जिसके घर में पढ़ाई का माहौल नहीं था। वह गांव में रहती थी। आठवीं के बाद स्कूल नहीं थी। लड़कियों को पढ़ाने में रूचि नहीं थी। यह कहानी है ऐसे दीये की जो कथित तौर पर कहे जाने वाले बुरे हालात के तूफान के बीच जगमगाते रहना चाहता था। लगन की बाती को आत्मबल के तेल से सींचता रहा। जलता रहा। अब उजाला कर रहा है उन सभी के लिए जो कहते हैं, हालात के अंधेरे में हमारे सपने गुम हो रहे हैं। जलाइये खुद को और रोशन कीजिए अपनी दुनिया। एक बार फिर रूपा यादव नहीं-नहीं डॉक्टर रूपा यादव को बहुत-बहुत बधाई।

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